कांग्रेस क्यों घृणा करती है वीर सावरकर से

वीर सावरकर को क्यों मिली 2 उम्र कैद, क्यों कांग्रेस करती है उंनसे इतनी नफरत, क्या थी 1857 कि क्रांति… इसके बारे में मात्र सावरकर ही भलीभांति जानते थे। एक कल्पना कीजिए… तीस वर्ष का पति जेल की सलाखों के भीतर खड़ा है और बाहर उसकी वह युवा पत्नी खड़ी है, जिसका बच्चा हाल ही में मृत हुआ है, इस बात की पूरी संभावना है कि अब शायद इस जन्म में इन पति-पत्नी की भेंट न हो। ऐसे कठिन समय पर इन दोनों ने क्या बातचीत की होगी, कल्पना मात्र से आप सिहर उठे ना? जी हाँ,  हम बात कर रहे हैं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चमकते सितारे विनायक दामोदर सावरकर जी की।

पत्नी को दिया त्याग और बलिदान की शिक्षा

ज्ञात हो कि यह परिस्थिति सावरकर के जीवन में आई थी, जब अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी (Andaman Cellular Jail) की कठोरतम सजा के लिए अंडमान जेल भेजने का निर्णय लिया और उनकी पत्नी उनसे मिलने जेल में आईं और मजबूत ह्रदय वाले वीर सावरकर ने अपनी पत्नी से एक ही बात कही : “तिनके-तीलियाँ बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल-बच्चों का पालन-पोषण करना… यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिड़िया भी बसाते हैं। अपने घर-परिवार-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं। मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है, इसका गर्व कीजिए। इस दुनिया में कुछ भी बोए बिना कुछ उगता नहीं है। धरती से ज्वार की फसल उगानी हो तो उसके कुछ दानों को जमीन में गड़ना ही होता है। वह बीच जमीन में, खेत में जाकर मिलते हैं तभी अगली ज्वार की फसल आती है।

क्रांतिकारियों के बलिदान से ही नए भारत का अभ्युदय

आगे सावरकर ने कहा कि यदि हिन्दुस्तान में अच्छे घर निर्माण करना है तो हमें अपना घर कुर्बान करना चाहिए। कोई न कोई मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में न मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा…”? कल्पना करो कि हमने अपने ही हाथों अपने घर के चूल्हे फोड़ दिए हैं, अपने घर में आग लगा दी है  परन्तु आज का यही धुआँ कल भारत के प्रत्येक घर से स्वर्ण का धुआँ बनकर निकलेगा।

यमुनाबाई, बुरा न मानें, मैंने तुम्हें एक ही जन्म में इतना कष्ट दिया है कि “यही पति मुझे जन्म-जन्मांतर तक मिले” ऐसा कैसे कह सकती हो…” यदि अगला जन्म मिला, तो हमारी भेंट होगी… अन्यथा यहीं से विदा लेता हूँ…. ऐसा वीर विनायक दामोदर ने अपनी धर्म पत्नी से कहा।

अब सोचिये, इस भीषण परिस्थिति में मात्र 25-26 वर्ष की उस युवा स्त्री ने अपने पति यानी वीर सावरकर से क्या कहा होगा? यमुनाबाई (अर्थात भाऊराव चिपलूनकर की पुत्री) धीरे से नीचे बैठीं, और जाली में से अपने हाथ अंदर करके उन्होंने सावरकर के पैरों को स्पर्श किया, उन चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई वहीं सावरकर भी चौंक गए, अंदर से हिल गए… उन्होंने पूछा…. ये क्या करती हो? अमर क्रांतिकारी की पत्नी ने कहा… “मैं यह चरण अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाए। अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है… इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है। यदि आप सत्यवान हैं, तो मैं सावित्री हूँ। मेरी तपस्या में इतना बल है, कि मैं यमराज से आपको वापस छीन लाऊँगी। आप चिंता न करें… अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें… हम इसी स्थान पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।” क्या जबरदस्त ताकत है… उस युवावस्था में पति को कालापानी की सजा पर ले जाते समय, कितना हिम्मत भरा वार्तालाप है… सचमुच, क्रान्ति की भावना कुछ स्वर्ग से तय होती है, कुछ संस्कारों से, यह हर किसी को नहीं मिलती।

50 साल की सजा देकर भी अंग्रेज सावरकर को नहीं मिला पाए

वीर सावरकर को 50 साल की सजा देकर भी अंग्रेज नहीं मिटा सके, लेकिन कांग्रेस व मार्क्सवादियों ने उन्हें  मिटाने की पूरे प्रयास किये। 26 फरवरी 1966 को वह इस दुनिया से प्रस्थाान कर गए। लेकिन इससे केवल 56 वर्ष व दो दिन पहले 24 फरवरी 1910 को उन्हें  ब्रिटिश सरकार ने एक नहीं, बल्कि दो-दो जन्मों के कारावास की सजा सुनाई थी, उन्हें 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी।

सावरकर भारत के प्रथम क्रांतिकारी जिसका मुकदमा हेग अंर्तराष्ट्रीय न्यायालय में चला

ज्ञात रहे कि वीर सावरकर भारतीय इतिहास में प्रथम क्रांतिकारी हैं, जिन पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्या्यालय में मुकदमा चलाया गया था। उन्हें  काले पानी की सजा मिली। कागज व लेखनी से वंचित कर दिए जाने पर उन्होंने अंडमान जेल की दीवारों को ही कागज और अपने नाखूनों, कीलों व कांटों को अपना पेन बना लिया था, जिसके कारण वह सच्चाई दबने से बच गई, जिसे न केवल ब्रिटिश, बल्कि आजादी के बाद तथाकथित इतिहासकारों ने भी दबाने का प्रयास किया। पहले ब्रिटिश ने और बाद में कांग्रेसी-वामपंथी इतिहासकारों ने हमारे इतिहास के साथ जो खिलवाड़ किया, उससे पूरे इतिहास में वीर सावरकर अकेले मुठभेड़ करते नजर आते हैं।

युवा पीढ़ी को नहीं पता कि सावरकर को दो बार काले पानी की सजा क्यों

भारत का दुर्भाग्य देखिए, भारत की युवा पीढ़ी यह तक नहीं जानती कि वीर सावरकर को आखिर दो जन्मों  के कालापानी की सजा क्यों  मिली थी, जबकि हमारे इतिहास की पुस्तकों में तो आजादी की पूरी लड़ाई गांधी-नेहरू के नाम कर दी गई है। तो फिर आपने कभी सोचा कि जब देश को आजाद कराने की पूरी लड़ाई गांधी-नेहरू ने लड़ी तो विनायक दामोदर सावरकर को कालेपानी की सजा क्यों  दी गई ? उन्होंने तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों की तरह बम-बंदूक से भी अंग्रेजों पर हमला नहीं किया था तो फिर क्यों  उन्हें  50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी।

वीर सावरकर की गलती यह थी कि उन्होंने कलम उठा लिया था और अंग्रेजों के उस झूठ का पर्दाफाश कर दिया, जिसे दबाए रखने में न केवल अंग्रेजों का, बल्कि केवल गांधी-नेहरू को ही असली स्वतंत्रता सेनानी मानने वालों का भी भला हो रहा था। अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति को केवल एक सैनिक विद्रोह करार दिया था, जिसे आज तक वामपंथी इतिहासकार ढो रहे हैं।

1857 की क्रांति की सच्चा्ई को दबाने व दुबारा ऐसी क्रांति न हो इसलिए कांग्रेस की स्थापना हुई

1857 की क्रांति की सच्चा्ई को दबाने और फिर कभी ऐसी क्रांति उत्पन्न न हो इसके लिए ही अंग्रेजों ने अपने एक अधिकारी ए.ओ.हयूम से 1885 में कांग्रेस की स्थापना करवाई थी। 1857 की क्रांति को कुचलने की जयंती उस वक्त ब्रिटेन में हर साल मनाई जाती थी और क्रांतिकारी नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे आदि को हत्यारा व उपद्रवी बताया जाता था। 1857 की 50 वीं वर्षगांठ 1907 ईस्वी में भी ब्रिटेन में विजय दिवस के रूप मे मनाया जा रहा था, जहां वीर सावरकर 1906 में वकालत की पढ़ाई करने के लिए पहुंचे थे।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अपमान नहीं सह पाए सावरकर

वीर सावरकर को रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे का अपमान करता नाटक इतना चुभ गया कि उनके उस क्रांति की सच्चाई तक पहुंचने के लिए भारत संबंधी ब्रिटिश दस्तावेजों के भंडार ‘इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी’ और ‘ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी’ में प्रवेश पा लिया और लगातार डेढ़ वर्ष तक ब्रिटिश दस्तावेज व लेखन की खाक छानते रहे। उन दस्तावेजों के खंगालने के बाद उन्हें  पता चला कि 1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह नहीं, बल्कि देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम था। इसे वीर विनायक दामोदर सावरकर ने मराठी भाषा में लिखना आरंभ किया।

10 मई 1908 को जब फिर से ब्रिटिश 1857 की क्रांति की वर्षगांठ पर लंदन में विजय दिवस मना रहे थे तो वीर सावरकर ने वहां चार पन्ने का एक पंपलेट बंटवाया, जिसका शीर्षक था ‘ओ मार्टर्स’ अर्थात ‘ऐ शहीदों’। अपने पंपलेट द्वारा सावरकर ने 1857 को मामूली सैनिक क्रांति बताने वाले अंग्रेजों के उस झूठ से पर्दा हटा दिया, जिसे लगातार 50 वर्षों से जारी रखा गया था। अंग्रेजों का प्रयास था कि भारतीयों को कभी 1857 की पूरी सच्चाई का पता नहीं चले, अन्यथा उनमें खुद के लिए गर्व और अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव जग जाएगा।

1910 में सावरकर को लंदन में ही गिरफतार कर लिया गया। सावरकर ने समुद्री सफर से बीच ही भागने का पूरा प्रयास किया लेकिन फ्रांस की सीमा में पकड़े गए। इसके कारण उन पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा चला। ब्रिटिश सरकार ने उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया और कई झूठे आरोप उन पर लाद दिए गए, लेकिन सजा देते वक्त न्यायाधीश ने उनके पंपलेट ‘ए शहीदों’ का जिक्र भी किया था, जिससे यह साबित होता है कि अंग्रेजों ने उन्हें असली सजा उनकी लेखनी के कारण ही दिया था। देशद्रोह के अन्य आरोप केवल मुकदमे को मजबूत करने के लिए वीर सावरकर पर लादे गए थे जिससे उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिल सके।

वीर सावरकर की पुस्ततक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ छपने से पहले की 1909 में प्रतिबंधित कर दी गई। पूरी दुनिया के इतिहास में यह पहली बार था कि कोई पुस्तक छपने से पहले की बैन कर दी गई हो। पूरी ब्रिटिश खुफिया एजेंसी इसे भारत में पहुंचने से रोकने में जुट गई, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही थी। इसका पहला संस्करण हॉलैंड में छपा और वहां से पेरिस होता हुए भारत पहुंचा। इस पुस्तक से प्रतिबंध 1947 में हटा, लेकिन 1909 में प्रतिबंधित होने से लेकर 1947 में भारत की आजादी मिलने तक अधिकांश भाषाओं में इस पुस्तुक के इतने गुप्त संस्करण निकले कि अंग्रेज थर्रा उठे।

*भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जापान, जर्मनी, पूरा यूरोप अचानक से इस पुस्तकों के गुप्त, संस्कंरण से जैसे पट गया। एक फ्रांसीसी पत्रकार ई.पिरियोन ने लिखा, ”यह एक महाकाव्य है, दैवी मंत्रोच्चांर है, देशभक्ति का दिशाबोध है। यह पुस्तक हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देती है, क्योंकि महमूद गजनवी के बाद 1857 में ही हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर समान शत्रु के विरुद्ध युद्ध लड़ा।*

यह सही अर्थों में राष्ट्रीय क्रांति थी। इसने सिद्ध कर दिया कि यूरोप के महान राष्ट्रों के समान भारत भी राष्ट्रीय चेतना प्रकट कर सकता है, इस तरह देश सावरकर के बलिदानों को कभी भूल नहीं सकता है। सावरकर  के त्याग और बलिदान के सामने एओ ह्युम के द्वारा स्थापित कांग्रेस पार्टी के बड़े से बड़े नेता भी पानी भरते नजर आते हैं। हम सब देशवासियों को वीर विनायक दामोदर सावरकर के त्याग और बलिदान को अपने हृदय में संजोकर रखना चाहिए।

 

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