स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जिनसे अंग्रेज भी डरा करते थे (गया-1922)

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था।

स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म २ फ़रवरी सन् १८५६ (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् १९१३) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में  एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।

पिता का ट्रान्सफर अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पुलिस अधिकारी नानकचन्द अपने पुत्र मुंशीराम को साथ लेकर स्वामी दयानन्द का प्रवचन सुनने पहुँचे। युवावस्था तक मुंशीराम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।

वे एक सफल वकील बने तथा काफी नाम और प्रसिद्धि प्राप्त की। आर्य समाज में वे बहुत ही सक्रिय रहते थे।

उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था। जब आप ३५ वर्ष के थे तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् १९१७ में उन्होने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।

मुंशीराम की बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था अपने पिता के साथ व्यतीत होती रही | इन्होने बनारस के क्वींस कॉलेज , जय नारायण कॉलेज और प्रयाग के म्यो कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की थी | वंश परम्परा के अनुसार इनके धर्म-कर्म एवं भक्ति का विशेष प्रभाव था | विश्वनाथ जी के दर्शन किये बिना ये जलपान तक नही करते थे | बांदा में ये नियमित रामचरितमानस का पाठ सुनते थे और प्रत्येक आदित्यवार को एक पैर पर खड़े होकर सौ बार हनुमान चालीसा का पाठ करते थे |

एक दिन उनके किशोर हृदय को ऐसी ठेस लगी कि इनकी समस्त रुढ़िवादी धार्मिक कट्टरता तिरोहित हो गयी | हुआ यह कि काशी के विश्वनाथ के दर्शनार्थ गये तो उन्हें बाहर ही रोक दिया गया क्योंकि मन्दिर में रींवा की महारानी दर्शन कर रही थी | इस प्रकार मूर्तिपूजा से इनको विरक्ति हो गयी | ऐसी ही अनेक घटनाओं के कारण मुंशी राम के मन में उथल पुथल मच गयी | संवत 1936 वि. में स्वामी दयानन्द सरस्वती का बरेली आगमन हुआ | पिता को तो शान्ति व्यवस्था के नाते स्वामी जी के व्याख्यान सुनने थे | उन्होंने इनके न चाहने पर ही आग्रह पूर्व मुंशी राम को स्वामी के सत्संग में सम्मीलित होने की प्रेरणा दी |

आदित्यमूर्ति दयानन्द के महान व्यक्तित्व के दर्शन कर तथा सभा में पादरी स्काट एवं अन्य यूरोपियनो को बैठा देखकर इनके मन में श्रुधा का उत्स प्रस्फुटित हो उठा | इन्होने तीन अवसरों पर स्वामी जी के समक्ष इश्वर के अस्तित्व पर शंका प्रकट की |

उनका राजनैतिक व सामाजिक जीवन:

उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ । अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ”दैनिक विजय” नामक समाचार-पत्र में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे । स्वामीजी महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे । जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे ।

इतने निर्भीक कि जनसभा करते समय अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा साहसपूर्ण जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे । 1922 में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । हिन्दू महासभा उनके विचारों को सुनकर उन्हें प्रभावशाली पद देना चाहती थी, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया ।

स्वामीजी ने 13 अप्रैल 1917 को संन्यास ग्रहण किया, तो वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गये । आर्यसमाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बड़ी तेजी से प्रचार-प्रसार किया । वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे । आर्यसमाजी होने के कारण उन्होंने हरिद्वार में गंगा किनारे गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना कर वैदिक शिक्षा प्रणाली को महत्व दिया

स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय

स्वामी श्रद्धानन्द ने दलितों की भलाई के कार्य को निडर होकर आगे बढ़ाया, साथ ही कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन का बढ़-चढ़कर नेतृत्व भी किया। कांग्रेस में उन्होंने 1919 से लेकर 1922 तक सक्रिय रूप से महत्त्‍वपूर्ण भागीदारी की। 1922 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया, लेकिन उनकी गिरफ्तारी कांग्रेस के नेता होने की वजह से नहीं हुई थी, बल्कि वे सिक्खों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए सत्याग्रह करते हुए बंदी बनाये गए थे। स्वामी श्रद्धानन्द कांग्रेस से अलग होने के बाद भी स्वतंत्रता के लिए कार्य लगातार करते रहे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए स्वामी जी ने जितने कार्य किए, उस वक्त शायद ही किसी ने अपनी जान जोखिम में डालकर किए हों। वे ऐसे महान् युगचेता महापुरुष थे, जिन्होंने समाज के हर वर्ग में जनचेतना जगाने का कार्य किया।

हत्या

श्रद्धानन्द जी सत्य के पालन पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने लिखा है- “प्यारे भाइयो! आओ, दोनों समय नित्य प्रति संध्या करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करें और उसकी सत्ता से इस योग्य बनने का यत्‍न करें कि हमारे मन, वाणी और कर्म सब सत्य ही हों। सर्वदा सत्य का चिंतन करें। वाणी द्वारा सत्य ही प्रकाशित करें और कमरे में भी सत्य का ही पालन करें। लेकिन सत्य और कर्म के मार्ग पर चलने वाले इस महात्मा की एक व्यक्ति ने 23 दिसम्बर, 1926 को चांदनी चौक, दिल्ली में गोली मारकर हत्या कर दी। इस तरह धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाला यह युगधर्मी महापुरुष सदा के लिए अमर हो गया।

स्रोत : जीवनी

 

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