पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण

पाणिनि (५०० ई पू) संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं। इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, ख़ान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं।

प्रारंभिक जीवन :

पाणिनि का जन्म शलातुर नामक ग्राम में हुआ था। जहाँ काबुल नदी सिंधु में मिली है उस संगम से कुछ मील दूर यह गाँव था। उसे अब लहुर कहते हैं। अपने जन्मस्थान के अनुसार पाणिनि शालातुरीय भी कहे गए हैं। और अष्टाध्यायी में स्वयं उन्होंने इस नाम का उल्लेख किया है। चीनी यात्री युवान्च्वाङ् (7वीं शती) उत्तर-पश्चिम से आते समय शालातुर गाँव में गए थे। पाणिनि के गुरु का नाम उपवर्ष पिता का नाम पणिन और माता का नाम दाक्षी था। पाणिनि जब बड़े हुए तो उन्होंने व्याकरणशास्त्र का गहरा अध्ययन किया।

पाणिनि से पहले शब्दविद्या के अनेक आचार्य हो चुके थे। उनके ग्रंथों को पढ़कर और उनके परस्पर भेदों को देखकर पाणिनि के मन में वह विचार आया कि उन्हें व्याकरणशास्त्र को व्यवस्थित करना चाहिए। पहले तो पाणिनि से पूर्व वैदिक संहिताओं, शाखाओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि का जो विस्तार हो चुका था उस वाङ्मय से उन्होंने अपने लिये शब्दसामग्री ली जिसका उन्होंने अष्टाध्यायी में उपयोग किया है। दूसरे निरुक्त और व्याकरण की जो सामग्री पहले से थी उसका उन्होंने संग्रह और सूक्ष्म अध्ययन किया। इसका प्रमाण भी अष्टाध्यायी में है, जैसा शाकटायन, शाकल्य, भारद्वाज, गार्ग्य, सेनक, आपिशलि, गालब और स्फोटायन आदि आचार्यों के मतों के उल्लेख से ज्ञात होता है।

अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है।

ये प्रत्यय जिन अर्थविषयों को प्रकट करते हैं उन्हें व्याकरण की परिभाषा में वृत्ति कहते हैं, जैसे वर्षा में होनेवाले इंद्रधनु को वार्षिक इंद्रधनु कहेंगे। वर्षा में होनेवाले इस विशेष अर्थ को प्रकट करनेवाला “इक” प्रत्यय तद्धित प्रत्यय है। तद्धित प्रकरण में 1,190 सूत्र हैं और कृदंत प्रकरण में 631। इस प्रकार कृदंत, तद्धित प्रत्ययों के विधान के लिए अष्टाध्यायी के 1,821 अर्थात् आधे से कुछ ही कम सूत्र विनियुक्त हुए हैं।

पाणिनि ने अपने समय की संस्कृत भाषा की सूक्ष्म छानबीन की थी। इस छानबीन के आधार पर उन्होंने जिस व्याकरण शास्त्र का प्रवचन किया, वह न केवल तत्कालीन संस्कृत भाषा का नियामक शास्त्र बना, अपितु उसने आगामी संस्कृत रचनाओं को भी प्रभावित किया। पाणिनि से पूर्व भी व्याकरण शास्त्र के अन्य आचार्यों ने इस विशाल संस्कृत भाषा को नियमों में बांधने का प्रयास किया था, परन्तु पाणिनि का शास्त्र विस्तार और गाम्भीर्य की दृष्टि से इन सभी में सिरमौर सिद्ध हुआ।

पाणिनि ने अपनी गहन अन्तदृर्ष्टि, समन्वयात्मक दृष्टिकोण, एकाग्रता, कुशलता, दृढ़ परिश्रम और विपुल सामग्री की सहायता से जिस अनूठे व्याकरण शास्त्र का उपदेश दिया, उसे देखकर बड़े से बड़े विद्वान आश्चर्य चकित होकर कहने लगे – ‘पाणिनीयं महत्सुविरचितम्’ – पाणिनि का शास्त्र महान और सुविरचित है; ‘महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य’ उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी है; ‘शोभना खलु पाणिनेः सूत्रस्य कृतिः’ उनकी रचना अति सुन्दर है; ‘पाणिनिशब्दो लोके प्रकाशते’ सारे लोक में पाणिनि का नाम छा गया है, इत्यादि। भाष्यकार ने पाणिनि को प्रमाणभूत आचार्य, माङ्गलिक आचार्य, सृहृद्, भगवान आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है।

उनके अनुसार पाणिनि के सूत्र में एक भी शब्द अनर्थक नहीं हो सकता, और पाणिनीय शास्त्र में ऐसा कुछ नहीं है जो निरर्थक हो। उन्होंने जो सूत्र बनाए हैं, वे बहुत ही सोच विचार कर बनाए गए हैं। उन्होंने सुहृद् के रूप में व्याकरण शास्त्र का अन्वाख्यान किया है। रचना के समय उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी और वह दूरतर की बात सोचते थे। इस प्रकार उनकी प्रतिष्ठा बच्चे बच्चे तक फैल गई और विद्यार्थियों में उन्हीं का व्याकरण सर्वाधिक प्रिय हुआ।

महर्षि पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बड़े  व्याकरण विज्ञानी थे | इनका जन्म उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पिंगल का बड़ा भाई मानते है | इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। इनके द्वारा भाषा के सन्दर्भ में किये गये महत्त्व पूर्ण कार्य 19वी सदी में प्रकाश में आने लगे |

19वी सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी Franz Bopp (14 सितम्बर 1791 – 23 अक्टूबर 1867) ने श्री पाणिनि के कार्यो पर गौर फ़रमाया । उन्हें पाणिनि के लिखे हुए ग्रंथों में तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के नए मार्ग मिले|  इसके बाद कई संस्कृत के विदेशी चहेतों  ने उनके कार्यो में रूचि दिखाई और गहन अध्ययन किया जैसे: Ferdinand de Saussure (1857-1913), Leonard Bloomfield (1887 – 1949) तथा एक हाल ही के भाषा विज्ञानी Frits Staal (1930 – 2012).

व्याकरणशास्त्र में पाणिनि ने नैरुक्त एवं गार्ग्य सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया । नैरुक्त संप्रदाय एवं शाकटायन के अनुसार, संज्ञावाचक शब्द धातुओं से ही बने हैं । गार्ग्य तथा दूसरे वैय्याकरणों का मत इससे कुछ भिन्न था । उनका कहना था, खींचतान करके प्रत्येक शब्द को धातुओं से सिद्ध करना उचित नहीं हैं । पाणिनि ने ‘उणादि’शब्दों को अव्युत्पन्न माना है, तथा धातु से प्रत्यय लगाकर, सिद्ध हुये शब्दों को ‘कृदन्त’प्रकरण में स्थान दिया है ।

पाणिनि के अनुसार, ‘संज्ञाप्रमाण’ एवं ‘योगप्रमाण’ दोनों अपने अपने स्थान पर इष्ट एवं आवश्यक हैं । शब्द से जाति का बोध होता है, या व्यक्ति का, इस संबंध में भी पाणिनि ने दोनों मतों को समयानुसार मान्यता दी है । धातु का अर्थ ‘हो’ अथवा ‘भाव’ हो, यह भी एक प्रश्न आता है । पाणिनि ने दोनों को स्वीकार किया है ।

पाणिनि ने अपनी ‘अष्टाध्यायी’ की रचना गणपाठ, धातृपाठ, उणादि, लिंगानुशान तथा फिटसूत्र ये ग्रंथों का आधार ले कर की है । उच्चारण-शास्त्र के लिये अष्टाध्यायी के साथ शिक्षा ग्रंथों के पठन-पाठन की भी आवश्यकता रहती है । पाणिनि प्रणीत व्याकरणशास्त्र में इन सभी विषयों का समावेश होता है । पतंजलि के अनुसार, गणपाठ की रचना पाणिनि व्याकरण के पूर्व हो चुकी थी ।

परस्पर भिन्न होते हुए भी व्याकरण के एक नियम के अंतर्गत आ जानेवाले शब्दों का संग्रह ‘गणपाठ’ में समाविष्ट किया गया है । गणपाठ में संग्रहीत शब्दों का अनुक्रम प्रायः निश्चित रहता है । गण में छोटे छोटे नियमों के लिये अंतर्गतसूत्रों का प्रणयन भी दिखलायी पडता है । गणपाठ की रचना पाणिनिपूर्व आचार्यो द्वारा की गयी होगी । फिर भी वह पाणिनि व्याकरण की महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी है ।

अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का 800 धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट 121 मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके। ” अप्रैल 1993 में MLBD समाचार पत्र (indological ग्रंथ सूची की एक मासिक), hardwear घोषित किया है बिना में महर्षि पाणिनि को पहले softwear आदमी।

जिसमे बताया गया “जिसका मुख्य शीर्षक था” भविष्य हार्डवेयर के लिए संस्कृत सॉफ्टवेयर “प्राकृतिक भाषाओं (प्राकृतिक भाषा केवल संस्कृत ही है बाकि सब की सब मानव रचित है) को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाने के तीन दशक की कोशिश करने के बाद, वैज्ञानिकों को एहसास हुआ कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में भी हम 2600 साल पहले ही पराजित हो चुके है।

हालाँकि उस समय इस तथ्य किस प्रकार और कहाँ उपयोग करते थे यह तो नहीं कह सकते, पर आज भी दुनिया भर में कंप्यूटर वैज्ञानिक मानते है कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण सभी कंप्यूटर की समस्याओं को हल करने में सक्षम है। व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संगृहीत हैं।

नासा के वैज्ञानिक Mr.Rick ब्रिग्स ने अमेरिका में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) और पाणिनी व्याकरण के बीच की शृंखला खोज की। प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाना बहुत मुस्किल कार्य था जब तक कि Mr.Rick ब्रिग्स। द्वारा संस्कृत के उपयोग की खोज न गयी।उसके बाद एक प्रोजेक्ट पर कई देशों के साथ करोड़ों डॉलर खर्च किये गये।

इनका समयकाल अनिश्चित तथा विवादित है। इतना तय है कि छठी सदी ईसा पूर्व के बाद और चौथी सदी ईसापूर्व से पहले की अवधि में इनका अस्तित्व रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब है। ऐसा माना जाता है कि पाणिनि ने लिखने के लिए किसी न किसी माध्यम का प्रयोग किया होगा क्योंकि उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द अति क्लिष्ट थे तथा बिना लिखे उनका विश्लेषण संभव नहीं लगता है।

कई लोग कहते है कि उन्होंने अपने शिष्यों की स्मरण शक्ति का प्रयोग अपनी लेखन पुस्तिका के रूप में किया था। भारत में लिपि का पुन: प्रयोग (सिन्धु घाटी सभ्यता के बाद) ६ठी सदी ईसा पूर्व में हुआ और ब्राह्मी लिपि का प्रथम प्रयोग दक्षिण भारत के तमिलनाडु में हुआ जो उत्तर पश्चिम भारत के गांधार से दूर था। गांधार में ६ठी सदी ईसा पूर्व में फारसी शासन था और ऐसा संभव है कि उन्होने आर्माइक वर्णों का प्रयोग किया होगा।

स्रोत : जीवनी

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